पहाड़ी की चोटी पर
बसे इस मंदिर में श्रद्धालुओं के जयघोष से समूचा वातावरण और भी आध्यात्मिक
हो जाता है। इस मंदिर पर पहुँचने के लिए सीढ़ियों और सड़कों की भी व्यवस्था
है, मगर अधिकांश श्रद्धालु इस मंदिर में जाने के सबसे मुश्किल माध्यम
सीढि़यों का ही उपयोग करना पसंद करते हैं। वहीं दूसरी ओर कुछ श्रद्धालु
हल्दी द्वारा सीढि़यों को सजाते हुए भी चढ़ाई चढ़ते हैं, जिसे ‘मेतला पूजा’
(सीढ़ियों का पूजन) कहते हैं।
विजयवाड़ा स्थित ‘इंद्रकीलाद्री’ नामक इस पर्वत पर निवास करने वाली माता कनक दुर्गेश्वरी का मंदिर आंध्रप्रदेश के मुख्य मंदिरों में एक है। यह एक ऐसा स्थान है, जहाँ एक बार आकर इसके संस्मरण को पूरी जिंदगी नहीं भुलाया जा सकता है। माँ की कृपा पाने के लिए पूरे साल इस मंदिर में श्रद्धालुओं का ताँता लगा रहता है, मगर नवरात्रि के दिनों में इस मंदिर की छटा ही निराली होती है। श्रद्धालु यहाँ पर विशेष प्रकार की पूजा का आयोजन करते हैं।
ऐसी भी मान्यता है कि इस स्थान पर भगवान शिव की कठोर तपस्या के फलस्वरूप अर्जुन को पाशुपथ अस्त्र की प्राप्ति हुई थी। इस मंदिर को अर्जुन ने माँ दुर्गा के सम्मान में बनवाया था। यह भी माना जाता हैं कि आदिदेव शंकराचार्य ने भी यहाँ भ्रमण किया था और अपना श्रीचक्र स्थापित करके माता की वैदिक पद्धति से पूजा-अर्चना की थी।
विजयवाड़ा स्थित ‘इंद्रकीलाद्री’ नामक इस पर्वत पर निवास करने वाली माता कनक दुर्गेश्वरी का मंदिर आंध्रप्रदेश के मुख्य मंदिरों में एक है। यह एक ऐसा स्थान है, जहाँ एक बार आकर इसके संस्मरण को पूरी जिंदगी नहीं भुलाया जा सकता है। माँ की कृपा पाने के लिए पूरे साल इस मंदिर में श्रद्धालुओं का ताँता लगा रहता है, मगर नवरात्रि के दिनों में इस मंदिर की छटा ही निराली होती है। श्रद्धालु यहाँ पर विशेष प्रकार की पूजा का आयोजन करते हैं।
ऐसी भी मान्यता है कि इस स्थान पर भगवान शिव की कठोर तपस्या के फलस्वरूप अर्जुन को पाशुपथ अस्त्र की प्राप्ति हुई थी। इस मंदिर को अर्जुन ने माँ दुर्गा के सम्मान में बनवाया था। यह भी माना जाता हैं कि आदिदेव शंकराचार्य ने भी यहाँ भ्रमण किया था और अपना श्रीचक्र स्थापित करके माता की वैदिक पद्धति से पूजा-अर्चना की थी।
तत्पश्चात किलाद्री की स्थापना दुर्गा माँ के निवास स्थान के रूप में हो गई। महिसासुर का वध करते हुए इंद्रकीलाद्री पर्वत पर माँ आठ हाथों में अस्त्र थामे और शेर पर सवार हुए स्थापित हुईं। पास की ही एक चट्टान पर ज्योतिर्लिंग के रूप में शिव भी स्थापित हुए। ब्रह्मा ने यहाँ शिव की मलेलु (बेला) के पुष्पों से आराधना की थी, इसलिए यहाँ पर स्थापित शिव का एक नाम मल्लेश्वर स्वामी पड़ गया।

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