असीरगढ़
का किला... रहस्यमय किला... कहते हैं यहाँ स्थित शिव मंदिर में महाभारतकाल
के अश्वत्थामा आज भी पूजा-अर्चना करने आते हैं। इस किंवदंती को सुनने के
बाद हमने फैसला किया कि सबसे पहले इसी किले के रहस्यों को कुरेदेंगे...
देखेंगे कि यह किंवदंती कहाँ तक सच है। असीरगढ़ का किला बुरहानपुर शहर से
20 किलोमीटर दूर है। किले पर चढ़ाई करने से पहले हमने किले के आसपास रहने
वाले बड़े-बुजुर्गों से इस बाबत जानकारी हासिल की।
हर एक ने हमें किले के संबंध में अजीबो-गरीब दास्तां सुनाई। किसी ने बताया 'उनके दादा ने उन्हें कई बार वहाँ अश्वत्थामा को देखने का किस्सा सुनाया है।' तो किसी ने कहा- 'जब वे मछली पकड़ने वहाँ के तालाब में गए थे, तो अंधेरे में उन्हें किसी ने तेजी से धक्का दिया था। शायद धक्का देने वाले को मेरा वहाँ आना पसंद नहीं आया।' गाँव के कई बुजुर्गों की बातें ऐसे ही किस्सों से भरी हुई थीं। किसी का कहना था कि जो एक बार अश्वत्थामा को देख लेता है, उसका मानसिक संतुलन बिगड़ जाता है।
बुजुर्गों से चर्चा करने के बाद हमने रुख किया असीरगढ़ के किले की तरफ। यह किला आज भी पाषाण युग में जीता नजर आता है। बिजली के युग में यहाँ की रातें अंधकार में डूबी रहती हैं। शाम छह बजे से किले का अंधकार 'भुतहा' रूप ले लेता है। इस सुनसान किले पर चढ़ाई करते समय कुछ गाँव वाले हमारे साथ हो गए।
हमारे इस सफर के साथी थे गाँव के सरपंच हारून बेग, गाइड मुकेश गढ़वाल और दो-तीन स्थानीय लोग। हमारी घड़ी का काँटा शाम के छह बजा रहा था। लगभग आधे घंटे की पैदल चढ़ाई करने के बाद हमने किले के बाहरी बड़े दरवाजे पर दस्तक दी।
हर एक ने हमें किले के संबंध में अजीबो-गरीब दास्तां सुनाई। किसी ने बताया 'उनके दादा ने उन्हें कई बार वहाँ अश्वत्थामा को देखने का किस्सा सुनाया है।' तो किसी ने कहा- 'जब वे मछली पकड़ने वहाँ के तालाब में गए थे, तो अंधेरे में उन्हें किसी ने तेजी से धक्का दिया था। शायद धक्का देने वाले को मेरा वहाँ आना पसंद नहीं आया।' गाँव के कई बुजुर्गों की बातें ऐसे ही किस्सों से भरी हुई थीं। किसी का कहना था कि जो एक बार अश्वत्थामा को देख लेता है, उसका मानसिक संतुलन बिगड़ जाता है।
बुजुर्गों से चर्चा करने के बाद हमने रुख किया असीरगढ़ के किले की तरफ। यह किला आज भी पाषाण युग में जीता नजर आता है। बिजली के युग में यहाँ की रातें अंधकार में डूबी रहती हैं। शाम छह बजे से किले का अंधकार 'भुतहा' रूप ले लेता है। इस सुनसान किले पर चढ़ाई करते समय कुछ गाँव वाले हमारे साथ हो गए।
हमारे इस सफर के साथी थे गाँव के सरपंच हारून बेग, गाइड मुकेश गढ़वाल और दो-तीन स्थानीय लोग। हमारी घड़ी का काँटा शाम के छह बजा रहा था। लगभग आधे घंटे की पैदल चढ़ाई करने के बाद हमने किले के बाहरी बड़े दरवाजे पर दस्तक दी।
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