वरदान के समय माँ ने इस दैत्य को गूँगा कर दिया। इसके बाद दैत्यराज को मूकासुर के नाम से जाना जाने लगा। आवाज खो देने के बाद भी दैत्य ने संत-महापुरुषों और आम लोगों को सताना बंद नहीं किया। तब महर्षि कोला की प्रार्थना पर माँ ने मूकासुर का वध कर दिया। इस कारण से इस मंदिर को कोल्लूर मुकाम्बिका मंदिर के नाम से जाना जाता है”


कोल्लूर मुकाम्बिका देवी का यह मंदिर वास्तुकला के रूप में एक आश्चर्य कहा जा सकता है। मंदिर की परिक्रमा में प्रवेश करते ही आपको स्वयं के अंदर अद्भुत शक्ति का संचार होता महसूस होगा। कोल्लूर मुकाम्बिका मंदिर के गर्भगृह में माँ की पाषाण पिंडी है। यहाँ ज्योति के रूप में देवी की आराधना की जाती है। इसका स्वरूप बेहद निराला है।
पानीपीठ नामक पवित्र जगह को एक सोने के चक्र जैसी ज्योति ने घेरा हुआ है। माना जाता है कि जैसे श्रीचक्र में ब्रह्मा-विष्णु-महेश का वास होता है, वैसे ही इस ज्योति चक्र में माँ का वास है। गर्भगृह में प्रकृति-शक्ति, काली, लक्ष्मी और सरस्वती माँ की मूर्तियाँ भी प्रतिष्ठित की गई हैं। ज्योति चक्र के पश्चिमी भाग में श्री देवी की पद्मासन में बैठी अत्यन्त रमणीय मूर्ति है, जिनके हाथों में शंख-चक्र आदि सुसज्जित हैं।
उड्डिप्पी जिले की सुपर्णिका नदी के किनारे बने कोल्लूर मुकाम्बिका मंदिर में विजया दशमी का दिन विद्या दशमी के रूप में मनाया जाता है। जी हाँ, इस दिन पालक यहाँ से अपने बच्चों की औपचारिक शिक्षा का शुभारंभ करते हैं। मान्यता है कि ऐसा करने से उनके बच्चों में अच्छी बुद्धि का संचार होगा
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