Tuesday, December 30, 2014

लोहार्गल....


 



कोटा. राजस्थान की धरती पर अनेक सांस्कृतिक रंग रह पग पर
नजर आते हैं। वीर सपूतों की इस धरती पर धर्म और आध्यात्म के
भी कई रंग दिखाई देते हैं। कहीं बुलट की बाबा के रूप में
पूजा होती है तो कहीं तलवारों के साये में
मां की आरती की जाती है तो एक मंदिर ऐसा भी है जिसने
1965 के युद्ध में पाकिस्तान के हमले किए थे नाकाम।
'झलक राजस्थान की' सीरीज में एक ऐसे
स्थान के बारे में बता रहा है जहां पानी में गल गई थी भीम
की गदा और जिस जगह पर पत्नी संग रहने के लिए भगवान सूर्य
को झेलने पड़े थे कष्ट।
महाभारत का युद्ध समाप्त हो चुका था, लेकिन जीत के बाद
भी पांडव अपने पूर्वजों की हत्या के पाप से चिंतित थे।
लाखों लोगों के पाप का दर्द देख श्री कृष्ण ने उन्हें
बताया कि जिस तीर्थ स्थल के तालाब में तुम्हारे हथियार
पानी में गल जायेंगे वहीं तुम्हारा मनोरथ पूर्ण होगा। घूमते-घूमते
पांण्ड़व लोहार्गल आये तथा जैसे ही भीम ने यहां के सूर्य कुंड़ में
स्नान किया उनके हथियार गल गये। इसके बाद शिव
जी की आराधना कर मोक्ष की प्राप्ति की।

Tuesday, December 23, 2014

त्रिदेव का स्वरूप हैं दत्तात्रेय


धर्मयात्रा की इस बार की कड़ी में हम आपको ले चलते हैं इंदौर के भगवान दत्तात्रेय के मंदिर में। भगवान दत्त को ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीनों का स्वरूप माना जाता है। दत्तात्रेय में ईश्वर और गुरु दोनों रूप समाहित हैं, इसीलिए उन्हें श्री गुरुदेवदत्त के नाम से भी पुकारा जाता है।

इं‍दौर स्थित भगवान दत्तात्रेय का मंदिर करीब 700 साल पुराना है और कृष्णपुरा की ऐतिहासिक छत्रियों के पास स्थित है। इंदौर होलकर राजवंश की राजधानी रहा है। होलकर राजवंश के संस्थापक सूबेदार मल्हारराव होलकर के आगमन के भी कई वर्ष पहले से दत्तात्रेय मंदिर की स्थापना हो चुकी थी। जगद्‍गुरु शंकराचार्य सहित कई साधु-संत पुण्य नगरी अवंतिका (वर्तमान में उज्जैन) जाने से पहले अपने अखाड़े के साथ इसी मंदिर के परिसर में रुका करते थे।


जब श्री गुरुनानकजी मध्य क्षेत्र के प्रवास पर थे तब वे इमली साहब नामक पवित्र गुरुस्थल पर तीन माह तक रुके थे और प्रत्येक दिन नदी के इस संगम पर आया करते थे और दत्त मंदिर के साधु-संन्यासियों से धर्मचर्चा किया करते थेकहा जाता है कि भगवान दत्त की निर्मिती भारतीय संस्कृति के इतिहास का अद्भुत चमत्कार है। भक्तों द्वारा अचानक आकर मदद करने वाली शक्ति को दत्त के रूप में पूजा जाता है और मार्गशीर्ष की पूर्णिमा पर दत्त जयंती का उत्सव धूमधाम से मनाया जाता है।

गुरुदेव के भक्तों की आराधना में गुरुचरित्र पाठ का अलग ही महत्व है। इसके कुल 52 अध्याय में कुल 7491 पंक्तियाँ हैं। कुछ लोग साल में केवल एक बार ही इसे एक दिन में या तीन दिन में पढ़ते हैं जबकि अधिकांश लोग दत्त जयंती पर मार्गशीर्ष शुद्ध 7 से मार्गशीर्ष 14 तक पढ़कर पूरा करते हैं। गुरुदेव के भक्त उनका महामंत्र दिगंबरा-दिगंबरा श्रीपाद वल्लभ दिगंबरा का जाप करते हुए सदैव भक्ति में लीन रहते हैं।



दत्तमूर्ति के साथ सदैव एक गाय तथा इनके आगे चार कुत्ते दिखाई देते हैं। पुराणों के अनुसार भगवान दत्तात्रेय ने पृथ्वी और चार वेदों की सुरक्षा के लिए अवतार लिया था, जिसमें गाय पृथ्वी तथा चार कुत्ते चार वेद के स्वरूप प्रतीत होते हैं। वहीं यह धारणा भी है कि गूलर के वृक्ष में भगवान दत्त का वास होता है, इसलिए प्रत्येक मंदिर में गूलर वृक्ष नजर आता है।

शैव, वैष्णव और शाक्त तीनों ही संप्रदायों को एकजुट करने वाले श्री दत्तात्रेय का प्रभाव महाराष्ट्र में ही नहीं, वरन विश्वभर में फैला हुआ है। गुरुदेव दत्तात्रेय में नाथ संप्रदाय, महानुभाव संप्रदाय, वारकरी संप्रदाय और समर्थ संप्रदाय की अगाध श्रद्धा है। दत्त संप्रदाय में हिन्दुओं के ही बराबर मुसलमान भक्त भी बड़ी संख्या में शामिल हैं, जो कि हमारी धर्मनिरपेक्ष संस्कृति का परिचायक है।


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कैसे पहुँचें :
वायुमार्ग: इंदौर को मध्यप्रदेश की व्यावसायिक राजधानी माना जाता है जहाँ अहिल्याबाई एयरपोर्ट स्थित है।
रेलमार्ग: इंदौर जंक्शन होने के कारण यहाँ रेलमार्ग द्वारा पहुँचना बहुत ही आसान है।
सड़क मार्ग: यह देश के प्रमुख राष्ट्रीय राजमार्ग (आगरा-मुंबई) से जुड़ा हुआ है। देश के किसी भी हिस्से से यहाँ सड़क मार्ग से आसानी से पहुँचने के बाद ऑटो से पहुँच सकते हैं।

सिद्धनाथ वीर गोगादेव

के सिद्धों के सम्बन्ध में एक चर्चित दोहा है :
‘‘पाबू, हडबू, रामदे, माँगलिया, मेहा।
पाँचू पीर पधारज्यों, गोगाजी जेहा''
धर्मयात्रा की इस बार की कड़ी में हम आपको ले चलते हैं सिद्ध वीर गोगादेव के जन्मस्थान, जो राजस्थान के चुरू जिले के दत्तखेड़ा में स्थित है। जहाँ पर सभी धर्म और सम्प्रदाय के लोग मत्था टेकने के लिए दूर-दूर से आते हैं।

नाथ परम्परा के साधुओं के ‍लिए यह स्थान बहुत महत्व रखता है। दूसरी ओर कायम खानी मुस्लिम समाज उनको जाहर पीर के नाम से पुकारते हैं तथा उक्त स्थान पर मत्‍था टेकने और मन्नत माँगने आते हैं। इस तरह यह स्थान हिंदू और मुस्लिम एकता का प्रतीक है।
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मध्यकालीन महापुरुष गोगाजी हिंदू, मुस्लिम, सिख संप्रदायों की श्रद्घा अर्जित कर एक धर्मनिरपेक्ष लोकदेवता के नाम से पीर के रूप में प्रसिद्ध हुए। गोगाजी का जन्म राजस्थान के ददरेवा (चुरू) चौहान वंश के राजपूत शासक जैबर (जेवरसिंह) की पत्नी बाछल के गर्भ से गुरु गोरखनाथ के वरदान से भादो सुदी नवमी को हुआ था। चौहान वंश में राजा पृथ्वीराज चौहान के बाद गोगाजी वीर और ख्याति प्राप्त राजा थे। गोगाजी का राज्य सतलुज सें हांसी (हरियाणा) तक था।

लोकमान्यता व लोककथाओं के अनुसार गोगाजी को साँपों के देवता के रूप में भी पूजा जाता है। लोग उन्हें गोगाजी चौहान, गुग्गा, जाहिर वीर व जाहर पीर के नामों से पुकारते हैं। यह गुरु गोरक्षनाथ के प्रमुख शिष्यों में से एक थे। राजस्थान के छह सिद्धों में गोगाजी को समय की दृष्टि से प्रथम माना गया है।

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जयपुर से लगभग 250 किमी दूर स्थित सादलपुर के पास दत्तखेड़ा (ददरेवा) में गोगादेवजी का जन्म स्थान है। दत्तखेड़ा चुरू के अंतर्गत आता है। गोगादेव की जन्मभूमि पर आज भी उनके घोड़े का अस्तबल है और सैकड़ों वर्ष बीत गए, लेकिन उनके घोड़े की रकाब अभी भी वहीं पर विद्यमान है। उक्त जन्म स्थान पर गुरु गोरक्षनाथ का आश्रम भी है और वहीं है गोगादेव की घोड़े पर सवार मूर्ति। भक्तजन इस स्थान पर कीर्तन करते हुए आते हैं और जन्म स्थान पर बने मंदिर पर मत्‍था टेककर मन्नत माँगते हैं।

हनुमानगढ़ जिले के नोहर उपखंड में स्थित गोगाजी के पावन धाम गोगामेड़ी स्थित गोगाजी का समाधि स्थल जन्म स्थान से लगभग 80 किमी की दूरी पर स्थित है, जो साम्प्रदायिक सद्भाव का अनूठा प्रतीक है, जहाँ एक हिन्दू व एक मुस्लिम पुजारी खड़े रहते हैं। श्रावण शुक्ल पूर्णिमा से लेकर भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा तक गोगा मेड़ी के मेले में वीर गोगाजी की समाधि तथा गोरखटीला स्थित गुरु गोरक्षनाथ के धूने पर शीश नवाकर भक्तजन मनौतियाँ माँगते हैं।

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''गोगा पीर'' व ''जाहिर वीर'' के जयकारों के साथ गोगाजी तथा गुरु गोरक्षनाथ के प्रति भक्ति की अविरल धारा बहती है। भक्तजन गुरु गोरक्षनाथ के टीले पर जाकर शीश नवाते हैं, फिर गोगाजी की समाधि पर आकर ढोक देते हैं। प्रतिवर्ष लाखों लोग गोगा जी के मंदिर में मत्था टेक तथा छड़ियों की विशेष पूजा करते हैं।

प्रदेश की लोक संस्कृति में गोगाजी के प्रति अपार आदर भाव देखते हुए कहा गया है कि ''गाँव-गाँव में खेजड़ी, गाँव-गाँव में गोगा'' वीर गोगाजी का आदर्श व्यक्तित्व भक्तजनों के लिए सदैव आकर्षण का केन्द्र रहा है।

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विद्वानों व इतिहासकारों ने उनके जीवन को शौर्य, धर्म, पराक्रम व उच्च जीवन आदर्शों का प्रतीक माना है। इतिहासकारों के अनुसार गोगादेव अपने बेटों सहित मेहमूद गजनबी के आक्रमण के समय सतलुज के मार्ग की रक्षा करते हुए शहीद हो गए। इस बार की यात्रा आपको कैसी लगी हमें जरूर बताएँ।
कैसे पहुँचे?
वायु मार्ग:- गोगादेव जन्मभूमि स्थल के सबमें निकटतम जयपुर का हवाई अड्डा लगभग 250 किमी पर स्थित है।
रेल मार्ग:- जयपुर से लगभग 250 किमी दूर स्थित सादलपुर तक ट्रेन द्वारा जाया जा सकता है।
सड़क मार्ग:- जयपुर देश के सभी राष्ट्रीय मार्ग से जुड़ा हुआ है। जयपुर से सादलपुर और सादलपुर से 15 किमी दूर स्थित दत्तखेड़ा में गोगाजी के जन्मस्थान तक बस या टैक्सी से पहुँचा जा सकता है।

देवास माता टेकरी : चामुंडा और तुलजा भवानी

बड़ी माता और छोटी माता का मंदिर

 धर्मयात्रा में इस बार दर्शन कीजिए जगत प्रसिद्ध देवास वाली माता के। देवास टेकरी पर स्थित माँ भवानी का यह मंदिर काफी प्रसिद्ध है। लोक मान्यता है कि यहाँ देवी माँ के दो स्वरूप अपनी जागृत अवस्था में हैं। इन दोनों स्वरूपों को छोटी माँ और बड़ी माँ के नाम से जाना जाता है। बड़ी माँ को तुलजा भवानी और छोटी माँ को चामुण्डा देवी का स्वरूप माना गया है।

यहाँ के पुजारी बताते हैं कि बड़ी माँ और छोटी माँ के मध्य बहन का रिश्ता था। एक बार दोनों में किसी बात पर विवाद हो गया। विवाद से क्षुब्द दोनों ही माताएँ अपना स्थान छोड़कर जाने लगीं। बड़ी माँ पाताल में समाने लगीं और छोटी माँ अपने स्थान से उठ खड़ी हो गईं और टेकरी छोड़कर जाने लगीं।

माताओं को कुपित देख माताओं के साथी (माना जाता है कि बजरंगबली माता का ध्वज लेकर आगे और भेरूबाबा माँ का कवच बन दोनों माताओं के पीछे चलते हैं) हनुमानजी और भेरूबाबा ने उनसे क्रोध शांत कर रुकने की विनती की। इस समय तक बड़ी माँ का आधा धड़ पाताल में समा चुका था। वे वैसी ही स्थिति में टेकरी में रुक गईं।


वहीं छोटी माता टेकरी से नीचे उतर रही थीं। वे मार्ग अवरुद्ध होने से और भी कुपित हो गईं और जिस अवस्था में नीचे उतर रही थीं, उसी अवस्था में टेकरी पर रुक गईं।

इस तरह आज भी माताएँ अपने इन्हीं स्वरूपों में विराजमान हैं। यहाँ के लोगों का मानना है कि माताओं की ये मूर्तियाँ स्वयंभू हैं और जागृत स्वरूप में हैं। सच्चे मन से यहाँ जो भी मन्नत माँगी जाती है, हमेशा पूरी होती है। इसके साथ ही देवास के संबंध में एक और लोक मान्यता यह है कि यह पहला ऐसा शहर है, जहाँ दो वंश राज करते थे- पहला होलकर राजवंश और दूसरा पँवार राजवंश। बड़ी माँ तुलजा भवानी देवी होलकर वंश की कुलदेवी हैं और छोटी माँ चामुण्डा देवी पँवार वंश की कुलदेवी।

टेकरी में दर्शन करने वाले श्रद्धालु बड़ी और छोटी माँ के साथ-साथ भेरूबाबा के दर्शन अनिवार्य मानते हैं। नवरात्र के दिन यहाँ दिन-रात लोगों का ताँता लगा रहता है। इन दिनों यहाँ माता की विशेष पूजा-अर्चना की जाती है

कैसे जाएँ :

हवाई मार्ग- यहाँ का निकटतम हवाई अड्डा मध्यप्रदेश की व्यावसायिक राजधानी कहे जाने वाले इंदौर शहर में स्थित है
सड़क मार्ग - यह शहर राष्ट्रीय राजमार्ग आगरा-मुंबई से जुड़ा हुआ है। यह मार्ग माता की टेकरी के नीचे से ही गुजरता है। इसके निकटतम बड़ा शहर इंदौर है, जो यहाँ से मात्र 30 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इंदौर से आप बस या टैक्सी लेकर देवास जा सकते हैं।
रेलमार्ग- इंदौर शहर में रेल मार्ग का जाल बिछा हुआ है। इंदौर आकर आप रेल से देवास जा सकते हैं।

तुलजापुर की तुलजा भवानी

महाराष्ट्र के उस्मानाबाद जिले में स्थित है तुलजापुर। एक ऐसा स्थान जहाँ छत्रपति शिवाजी की कुलदेवी श्रीतुलजा भवानी स्थापित हैं, जो आज भी महाराष्ट्र व अन्य राज्यों के कई निवासियों की कुलदेवी के रूप में प्रचलित हैं।
तुलजा भवानी महाराष्ट्र के प्रमुख साढ़े तीन शक्तिपीठों में से एक है तथा भारत के प्रमुख पचास शक्तिपीठों में से भी एक मानी जाती है। मान्यता है कि शिवाजी को खुद देवी माँ ने तलवार प्रदान की थी। अभी यह तलवार लंदन के संग्रहालय में रखी हुई है।
यह मंदिर महाराष्ट्र के प्राचीन दंडकारण्य वनक्षेत्र में स्थित यमुनांचल पर्वत पर स्थित है। ऐसी जनश्रुति है कि इसमें स्थित तुलजा भवानी माता की मूर्ति स्वयंभू है। इस मूर्ति की एक और खास बात यह है कि यह मंदिर में स्थायी रूप से स्थापित न होकर ‘चलायमान’ है। साल में तीन बार इस प्रतिमा के साथ प्रभु महादेव, श्रीयंत्र तथा खंडरदेव की भी प्रदक्षिणापथ पर परिक्रमा करवाई जाती है।
तुलजा भवानी का मंदिर : इस मंदिर का स्थापत्य मूल रूप से हेमदपंथी शैली से प्रभावित है। इसमें प्रवेश करते ही दो विशालकाय महाद्वार नजर आते हैं। इनके बाद सबसे पहले कलोल तीर्थ स्थित है, जिसमें 108 तीर्थों के पवित्र जल का सम्मिश्रण है। इसमें उतरने के पश्चात थोड़ी ही दूरी पर गोमुख तीर्थ स्थित है, जहाँ जल तीव्र प्रवाह के साथ बहता है। तत्पश्चात सिद्धिविनायक भगवान का मंदिर स्थापित है
तत्पश्चात एक सुसज्जित द्वार में प्रवेश करने के पश्चात मुख्य कक्ष (गर्भ गृह) में माता की स्वयंभू प्रतिमा स्थापित है। गर्भगृह के पास ही एक चाँदी का पलंग स्थित है, जो माता की निद्रा के लिए है। इस पलंग के उलटी तरफ शिवलिंग स्थापित है, जिसे दूर से देखने पर ऐसा प्रतीत होता है कि माँ भवानी व शिव शंकर आमने-सामने बैठे हैं।
यहाँ पर स्थित चाँदी के छल्ले वाले स्तंभों के विषय में माना जाता है कि यदि आपके शरीर के किसी भी भाग में दर्द है, तो सात दिन लगातार इस छल्ले को छूने से वह दर्द समाप्त हो जाता है।
इस मंदिर से जुड़ी एक जनश्रुति यह भी है कि यहाँ पर एक ऐसा चमत्कारिक पत्थर विद्यमान है, जिसके विषय में यह माना जाता है कि यह आपके सभी प्रश्नों का उत्तर सांकेतिक रूप में ‘हा’ या ‘नही’ में देता है। यदि आपके प्रश्न का उत्तर ‘हा’ है तो यह अपने आप दाहिनी ओर मुड़ जाता है और अगर ‘नही’ है तो यह बायीं दिशा में मुड़ जाता है।
माना जाता है कि छत्रपति शिवाजी किसी भी युद्ध से पहले चिंतामणि नामक इस पत्थर के पास अपने प्रश्नों के समाधान के लिए आते थे।

आस्था का केंद्र माँ चन्द्रिका देवी धाम

महाबली वीरवर बर्बरीक की है तपस्थली 
लखनऊ-नई दिल्ली नेशनल हाईवे-24 पर स्थित बख्शी का तालाब कस्बे से 11 किमी सड़क पर चन्द्रिका देवी तीर्थ धाम की महिमा अपरम्पार है। कहा जाता है कि गोमती नदी के समीप स्थित महीसागर संगम तीर्थ के तट पर एक पुरातन नीम के वृक्ष के कोटर में नौ दुर्गाओं के साथ उनकी वेदियाँ चिरकाल से सुरक्षित रखी हुई हैं।
अठारहवीं सदी के पूर्वार्द्ध से यहाँ माँ चन्द्रिका देवी का भव्य मंदिर बना हुआ है। ऊँचे चबूतरे पर एक मठ बनवाकर पूजा-अर्चना के साथ देवी भक्तों के लिए प्रत्येक मास की अमावस्या को मेला लगता था, जिसकी परम्परा आज भी जारी है।
श्रद्धालु अपनी मनोकामना पूरी करने के लिए माँ के दरबार में आकर मन्नत माँगते हैं, चुनरी की गाँठ बाँधते हैं तथा मनोकामना पूरी होने पर माँ को चुनरी, प्रसाद चढ़ाकर मंदिर परिसर में घण्टा बाँधते हैं। अमीर हो अथवा गरीब, अगड़ा हो अथवा पिछड़ा, माँ चन्द्रिका देवी के दरबार में सभी को समान अधिकार है।

यहाँ मेले आदि की सारी व्यवस्था संस्थापक स्व. ठाकुर बेनीसिंह चौहान के वंशज अखिलेश सिंह संभालते हैं। वे कठवारा गाँव के प्रधान हैं। महीसागर संगम तीर्थ के पुरोहित और यज्ञशाला के आचार्य ब्राह्मण हैं। माँ के मंदिर में पूजा-अर्चना पिछड़ा वर्ग के मालियों द्वारा तथा पछुआ देव के स्थान (भैरवनाथ) पर आराधना अनुसूचित जाति के पासियों द्वारा कराई जाती है। ऐसा उदाहरण दूसरी जगह मिलना मुश्किल है।
स्कन्द पुराण के अनुसार द्वापर युग में घटोत्कच के पुत्र बर्बरीक ने माँ चन्द्रिका देवी धाम स्थित महीसागर संगम में तप किया था। चन्द्रिका देवी धाम की तीन दिशाओं उत्तर, पश्चिम और दक्षिण में गोमती नदी की जलधारा प्रवाहित होती है तथा पूर्व दिशा में महीसागर संगम तीर्थ स्थित है। जनश्रुति है कि महीसागर संगम तीर्थ में कभी भी जल का अभाव नहीं होता और इसका सीधा संबंध पाताल से है। आज भी करोड़ों भक्त यहाँ महारथी वीर बर्बरीक की पूजा-आराधना करते हैं।


यह भी मान्यता है कि दक्ष प्रजापति के श्राप से प्रभावित चन्द्रमा को भी श्रापमुक्ति हेतु इसी महीसागर संगम तीर्थ के जल में स्नान करने के लिए चन्द्रिका देवी धाम में आना पड़ा था। त्रेता युग में लक्ष्मणपुरी (लखनऊ) के अधिपति उर्मिला पुत्र चन्द्रकेतु को चन्द्रिका देवी धाम के तत्कालीन इस वन क्षेत्र में अमावस्या की अर्धरात्रि में जब भय व्याप्त होने लगा तो उन्होंने अपनी माता द्वारा बताई गई नवदुर्गाओं का स्मरण किया और उनकी आराधना की। तब चन्द्रिका देवी की चन्द्रिका के आभास से उनका सारा भय दूर हो गया था।
महाभारतकाल में पाँचों पाण्डु पुत्र द्रोपदी के साथ अपने वनवास के समय इस तीर्थ पर आए थे। महाराजा युधिष्ठिर ने अश्वमेध यज्ञ कराया जिसका घोड़ा चन्द्रिका देवी धाम के निकट राज्य के तत्कालीन राजा हंसध्वज द्वारा रोके जाने पर युधिष्ठिर की सेना से उन्हें युद्ध करना पड़ा, जिसमें उनका पुत्र सुरथ तो सम्मिलित हुआ, किन्तु दूसरा पुत्र सुधन्वा चन्द्रिका देवी धाम में नवदुर्गाओं की पूजा-आराधना में लीन था और युद्ध में अनुपस्थित‍ि के कारण इसी महीसागर क्षेत्र में उसे खौलते तेल के कड़ाहे में डालकर उसकी परीक्षा ली गई।


माँ चन्द्रिका देवी की कृपा के चलते उसके शरीर पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। तभी से इस तीर्थ को सुधन्वा कुण्ड भी कहा जाने लगा। महाराजा युधिष्ठिर की सेना अर्थात कटक ने यहाँ वास किया तो यह गाँव कटकवासा कहलाया। आज इसी को कठवारा कहा जाता है।
नवदुर्गाओं की सिद्धपीठ चन्द्रिका देवी धाम में एक विशाल हवन कुण्ड, यज्ञशाला, चन्द्रिका देवी का दरबार, बर्बरीक द्वार, सुधन्वा कुण्ड, महीसागर संगम तीर्थ के घाट आदि आज भी दर्शनीय हैं।
हिन्दी साहित्य के उपन्यास सम्राट स्व. अमृतलाल नागर ने अपने उपन्यास 'करवट' में चन्द्रिका देवी की महिमा का बखान किया जिसमें उपन्यास का नायक बंशीधर टण्डन चौक इलाके से देवी को प्रसन्न करने के लिए हर अमावस्या को चन्द्रिका देवी के दर्शन करने आता था। आज भी अमावस्या के दिन और उसकी पूर्व संध्या को माँ चन्द्रिका देवी के दर्शनार्थियों में सर्वाधिक संख्या लखनऊ के चौक क्षेत्र के देवीभक्तों की होती है।
स्थानीय लोगों का कहना है कि आस्था और विश्वास से जुड़े पौराणिक महीसागर संगम तीर्थ को राजस्व विभाग के अभिलेखों में पाँच एकड़ क्षेत्र वाले सामान्य ताल के नाम से अंकित किया गया है। स्थानीय लोगों एवं श्रद्धालुओं का कहना है कि इस पौराणिक तीर्थ को सरकार अपने अभिलेखों में दर्ज कराए।

कनक दुर्गा मंदिर

पहाड़ी की चोटी पर बसे इस मंदिर में श्रद्धालुओं के जयघोष से समूचा वातावरण और भी आध्यात्मिक हो जाता है। इस मंदिर पर पहुँचने के लिए सीढ़ियों और सड़कों की भी व्यवस्था है, मगर अधिकांश श्रद्धालु इस मंदिर में जाने के सबसे मुश्किल माध्यम सीढि़यों का ही उपयोग करना पसंद करते हैं। वहीं दूसरी ओर कुछ श्रद्धालु हल्दी द्वारा सीढि़यों को सजाते हुए भी चढ़ाई चढ़ते हैं, जिसे ‘मेतला पूजा’ (सीढ़ियों का पूजन) कहते हैं।
विजयवाड़ा स्थित ‘इंद्रकीलाद्री’ नामक इस पर्वत पर निवास करने वाली माता कनक दुर्गेश्वरी का मंदिर आंध्रप्रदेश के मुख्य मंदिरों में एक है। यह एक ऐसा स्थान है, जहाँ एक बार आकर इसके संस्मरण को पूरी जिंदगी नहीं भुलाया जा सकता है। माँ की कृपा पाने के लिए पूरे साल इस मंदिर में श्रद्धालुओं का ताँता लगा रहता है, मगर नवरात्रि के दिनों में इस मंदिर की छटा ही निराली होती है। श्रद्धालु यहाँ पर विशेष प्रकार की पूजा का आयोजन करते हैं।

ऐसी भी मान्यता है कि इस स्थान पर भगवान शिव की कठोर तपस्या के फलस्वरूप अर्जुन को पाशुपथ अस्त्र की प्राप्ति हुई थी। इस मंदिर को अर्जुन ने माँ दुर्गा के सम्मान में बनवाया था। यह भी माना जाता हैं कि आदिदेव शंकराचार्य ने भी यहाँ भ्रमण किया था और अपना श्रीचक्र स्थापित करके माता की वैदिक पद्धति से पूजा-अर्चना की थी।


इंद्रकीलाद्री पर्वत पर बने और कृष्णा नदी के तट पर स्थित कनक दुर्गा माँ का यह मंदिर अत्यंत प्राचीन है। ऐसा माना जाता है कि इस मंदिर में स्थापित कनक दुर्गा माँ की प्रतिमा ‘स्वयंभू’ है। इस मंदिर से जुड़ी एक पौराणिक कथा है कि एक बार राक्षसों ने अपने बल प्रयोग द्वारा पृथ्वी पर तबाही मचाई थी। तब अलग-अलग राक्षकों को मारने के लिए माता पार्वती ने अलग-अलग रूप धारित किए। उन्होंने शुंभ और निशुंभ को मारने के लिए कौशिकी, महिसासुर के वध के लिए महिसासुरमर्दिनी व दुर्गमसुर के लिए दुर्गा जैसे रूप धरे। कनक दुर्गा ने अपने एक श्रद्धालु ‘कीलाणु’ को पर्वत बनकर स्थापित होने का आदेश दिया, जिस पर वे निवास कर सकें।

तत्पश्चात किलाद्री की स्थापना दुर्गा माँ के निवास स्थान के रूप में हो गई। महिसासुर का वध करते हुए इंद्रकीलाद्री पर्वत पर माँ आठ हाथों में अस्त्र थामे और शेर पर सवार हुए स्थापित हुईं। पास की ही एक चट्टान पर ज्योतिर्लिंग के रूप में शिव भी स्थापित हुए। ब्रह्मा ने यहाँ शिव की मलेलु (बेला) के पुष्पों से आराधना की थी, इसलिए यहाँ पर स्थापित शिव का एक नाम मल्लेश्वर स्वामी पड़ गया।

आंध्रप्रदेश का मां त्रिशक्ति पीठम

जहाँ विराजे हैं देवी के अनोखे रूप
श्री काली माता अमरावती देवस्थानम। इस पवित्र स्थान को त्रिशक्ति पीठम के नाम से भी जाना जाता है। वर्तमान में यह मंदिर आंध्रप्रदेश के विजयवाड़ा के गिने-चुने मंदिरों में से एक है। कृष्णावेणी नदी के तट पर बसा यह पवित्र मंदिर बेहद अलौकिक है। त्रिशक्ति पीठम में मुख्य रूप से तीन देवियों- श्री महाकाली, श्री महालक्ष्मी और श्री महासरस्वती की प्रतिमाएँ स्थापित हैं, जो ‘इच्छाशक्ति’, ‘क्रियाशक्ति’ और ‘ज्ञानशक्ति’ की द्योतक हैं। इस पवित्र स्थान को पूरे देश में ‘आस्था दास प्रीत’ के नाम से जाना जाता है।

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मंदिर की नींव कृष्णावेणी नदी के तट पर एक शक्ति उपासक गुंजा रामास्वामी ने 14 अक्टूबर, 1947 में रखी थी। फिर इस मंदिर के कपाट आश्चर्यजनक रूप से बंद कर दिए गए। 1965 में तुरग वेंकटश्वरलू नामक एक अन्य उपासक ने पंद्रह सालों बाद इस मंदिर के बंद द्वार खोले। चमत्कार तो यह था कि उनके साथ मौजूद अन्य लोगों ने मंदिर खोलने के पश्चात पाया कि मंदिर के अंदर दीप प्रज्ज्वलित था। इस घटना के पश्चात सभी ने महाकाली की महिमा मान ली।

मंदिर में वैदिक रीति से पूजा-अर्चना की जाती है। यहाँ सत्रों के अंतर्गत पंचामृत स्थापना, श्री लक्ष्मी गणेश होमम और लक्ष कुम अर्चना के पश्चात वैदिक मंत्रोच्चार द्वारा पूजा-अर्चना की जाती है। यहाँ पर श्रद्धालुओं द्वारा सरानवरात्रि, दीपावली जैसे उत्सव आयोजित किए जाते हैं।



दशमुखी महालक्ष्मी-
यहाँ पर स्थित महाकाली की प्रतिमा के दस मुख और दस पद हैं। उनका रंग गाढ़ा नीला है। यह प्रतिमा माँ का तामसिक रूप प्रदर्शित करती है। गहनों से लदी महाकाली के आठ हाथों में शस्त्र सुसज्जित हैं। वे तलवार, चक्र, गदा, धनुष, बाण, भाला, ढाल, गुलेल, कपाल और शंख से सुसज्जित हैं। माता का यह रूप ‘योगनिद्र’ का रूप है। भगवान ब्रह्मा माँ के इस रूप से विष्णुजी को नींद की जकड़न से छूटने की विनती कर रहे हैं, ताकि विष्णु भगवान ब्रह्माजी को मारने को लालायित मधु और कैटभ नामक राक्षसों का वध कर सकें।

गुजरात का मां अम्बाजी मंदिर


या देवीसर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता
नमस्तस्यै-नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः...
शक्ति के उपासकों के लिए इस बार वेबदुनिया लाया है गुजरात का अम्बाजी मंदिर। माँ अम्बा-भवानी के शक्तिपीठों में से एक इस मंदिर के प्रति माँ के भक्तों में अपार श्रद्धा है। यह मंदिर बेहद प्राचीन है। मंदिर के गर्भगृह में माँ की कोई प्रतिमा स्थापित नहीं है। यहाँ माँ का एक श्री-यंत्र स्थापित है। इस श्री-यंत्र को कुछ इस प्रकार सजाया जाता है कि देखने वाले को लगे कि माँ अम्बे यहाँ साक्षात विराजी हैं। नवरात्र में यहाँ का पूरा वातावरण शक्तिमय रहता है।

शक्तिस्वरूपा अम्बाजी देश के अत्यंत प्राचीन 51 शक्तिपीठों में से एक माना जाता है। वस्तुतः हिंदू धर्म के प्रमुख बारह शक्तिपीठ हैं। इनमें से कुछ शक्तिपीठ हैं- काँचीपुरम का कामाक्षी मंदिर, मलयगिर‍ि का ब्रह्मारंब मंदिर, कन्याकुमारी का कुमारिका मंदिर, अमर्त-गुजरात स्थित अम्बाजी का मंदिर, कोल्हापुर का महालक्ष्मी मंदिर, प्रयाग का देवी ललिता का मंदिर, विंध्या स्थित विंध्यवासिनी माता का मंदिर, वाराणसी की माँ विशालाक्षी का मंदिर, गया स्थित मंगलावती और बंगाल की सुंदर भवानी और असम की कामख्या देवी का मंदिर। ज्ञात हो कि सभी शक्तिपीठों में माँ के अंग गिरे हैं।

यह मंदिर गुजरात-राजस्थान सीमा पर स्थित है। माना जाता है कि यह मंदिर लगभग बारह सौ साल पुराना है। इस मंदिर के जीर्णोद्धार का काम 1975 से शुरू हुआ था और तब से अब तक जारी है। श्वेत संगमरमर से निर्मित यह मंदिर बेहद भव्य है। मंदिर का शिखर एक सौ तीन फुट ऊँचा है। शिखर पर 358 स्वर्ण कलश सुसज्जित हैं



मंदिर से लगभग तीन किलोमीटर की दूरी पर गब्बर नामक पहाड़ है। इस पहाड़ पर भी देवी माँ का प्राचीन मंदिर स्थापित है। माना जाता है यहाँ एक पत्थर पर माँ के पदचिह्न बने हैं। पदचिह्नों के साथ-साथ माँ के रथचिह्न भी बने हैं। अम्बाजी के दर्शन के उपरान्त श्रद्धालु गब्बर जरूर जाते हैं।

अम्बाजी मंदिर के बारे में कहा जाता है कि यहाँ पर भगवान श्रीकृष्ण का मुंडन संस्कार संपन्न हुआ था। वहीं भगवान राम भी शक्ति की उपासना के लिए यहाँ आ चुके हैं। हर साल भाद्रपदी पूर्णिमा के मौके पर यहाँ बड़ी संख्या में श्रद्धालु जमा होते हैं




विशेष आकर्षण- नौ दिनों तक चलने वाले नवरात्र पर्व में श्रद्धालु बड़ी संख्या में यहाँ माता के दर्शन के लिए आते हैं। इस समय मंदिर प्रांगण में गरबा करके शक्ति की आराधना की जाती है। समूचे गुजरात से कृषक अपने परिवार के सदस्यों के साथ माँ के दर्शन के लिए एकत्रित होते हैं।

व्यापक स्तर पर मनाए जाने वाले इस समारोह में ‘भव’ और ‘गरब’ जैसे नृत्यों का प्रबंध किया जाता है। साथ ही यहाँ पर ‘सप्तशत’ (माँ की सात सौ स्तुतियाँ) का पाठ भी आयोजित किया जाता है। भाद्रपदी पूर्णिमा को इस मंदिर में एकत्रित होने वाले श्रद्धालु पास में ही स्थित गब्बरगढ़ नामक पर्वत श्रृंखला पर भी जाते हैं, जो इस मंदिर से दो मील दूर पश्चिम की दिशा में स्थित है। प्रत्येक माह पूर्णिमा और अष्टमी तिथि पर यहाँ माँ की विशेष पूजा-अर्चना की जाती है।

कैसे पहुँचें- अम्बाजी मंदिर गुजरात और राजस्थान की सीमा से लगा हुआ है। आप यहाँ राजस्थान या गुजरात जिस भी रास्ते से चाहें पहुँच सकते हैं। यहाँ से सबसे नजदीक स्टेशन माउंटआबू का पड़ता है। आप अहमदाबाद से हवाई सफर भी कर सकते हैं। अम्बाजी मंदिर अहमदाबाद से 180 किलोमीटर और माउंटआबू से 45 किलोमीटर दूरी पर स्थित है।

भवानी माता मंदिर खण्डवा

धर्मयात्रा में हम इस बार आपको लेकर चल रहे हैं खण्डवा के प्रसिद्ध भवानी माता मंदिर में। धूनीवाले दादाजी के दरबार के पास स्थित यह मंदिर माता तुलजा भवानी को समर्पित है।
कहते हैं भगवान राम अपने वनवास के दौरान इस स्थान पर आए थे और यहाँ उन्होंने नौ दिनों तक तपस्या की थी। नवरात्र में यहाँ नौ दिनों तक मेला लगता है, जिसे देखने और माता के दर्शन करने के लिए प्रतिवर्ष हजारों लोग यहाँ आते हैं
मंदिर के गर्भगृह में चाँदी की नक्काशी की गई है। माता का मुकुट और छत्र भी चाँदी से बने हुए हैं। पहले भवानी माता को नकटी माता के नाम से जाना जाता था, परंतु दादाजी धूनीवले के आग्रह पर लोग देवी को भवानी माता के नाम से संबोधित करने लगे।

मंदिर परिसर अत्यंत सुंदर और मनमोहक है। मंदिर के प्रवेश द्वार का स्तंभ शंख की आकृति लिए हुए है। परिसर के अंदर एक विशाल दीपशिखा है, जिस पर शंख की आकृति में दीपक बने हुए हैं

भवानी माता के मंदिर के पास ही श्रीराम मंदिर, तुलजेश्वर हनुमान मंदिर और तुलजेश्वर महादेव मंदिर स्थित हैं। इन मंदिरों में स्थापित मूर्तियाँ अत्यंत दर्शनीय हैं। बिन माँगी मुरादें पूरी करने वाली तुलजा भवानी का यह मंदिर सम्पूर्ण निमाड़ क्षेत्र की आस्था का प्रमुख केन्द्र है

कैसे पहुँचें : खण्डवा भारत के सभी प्रमुख शहरों से रोड और रेल से अच्छी तरह जुड़ा हुआ है। निकटतम हवाई अड्डा देवी अहिल्या एयरपोर्ट, इंदौर करीब 140 किमी की दूरी पर स्थित है।

हर बीमारी का इलाज करने वाले वैथियानाथस्वामी




 हमारे देश में भगवान शिव के प्रसिद्ध क्षेत्रों में वैथीस्वरन कोईल का एक विशेष स्थान है। यहाँ भक्तों के हृदय में भगवान वैथीयंतर के रूप में बसते हैं। वैथीयंतर शब्द का अर्थ है हर बीमारी का इलाज करने वाले, जिसे हम आजकल की भाषा में चिकित्सक या डॉक्टर भी कह सकते हैं। मान्यता है कि वैथीयंतर ने 4,480 बीमारियों का इलाज संभव किया।


यह मंदिर इसलिए प्रसिद्ध है, क्योंकि रामायण के अनुसार जटायु ने दुष्ट रावण से माता सीता को बचाने के लिए युद्ध किया था और इस लड़ाई में उसके दोनों पंख कटकर यहीं मंदिर की जगह पर गिरे थे
सीता की खोज में जब प्रभु श्रीराम अपने अनुज लक्ष्मण के साथ यहाँ पहुँचे, तो जटायु अपने जीवन की अंतिम घड़ियाँ गिन रहा था। जटायु ने राम को सारा वाकया बताया और उनसे प्रार्थना की कि वे स्वयं उसका दाह संस्कार करें

जिस स्थान पर श्रीराम ने जटायु का दाह संस्कार किया, उसे जटायु कुंडम के नाम से जाना जाता है। यह भव्य स्थान मंदिर के अंदर स्थित है तथा किसी भी धर्म के लोग हो, इस कुंडम से विभूति प्रसाद लेते हैं

श्रीराम ने रावण को युद्ध में पराजित किया एवं सीता तथा अन्य साथियों के साथ लौटकर उन्होंने इस भव्य स्थान पर भगवान शिव से प्रार्थना की। देवी शक्ति से भगवान मुरुगा ने वेल शस्त्र प्राप्त किया था एवं इसी शस्त्र से पदमा सुरन नामक असुर का वध किया था।



संत विश्वामित्र, वशिष्ठ, तिरुवानाकुरसर, तिरुगनंसबंदर, अरुनागीरीनाथर ने इस स्थान पर भगवान से पूजा-अर्चना की थी। यह भव्य स्थान विशिष्ट है, क्योंकि कुष्ठ रोग से पीड़ित अंगरकन (तमिल भाषा में मंगल ग्रह का नाम) ने भगवान से प्रार्थना की तथा अपनी बीमारी का इलाज किया। अतः यह स्थान नवग्रह क्षेत्रम में से एक है। जिन लोगों की जन्मकुंडली में चेव्वा दोष है, वे यहाँ आते हैं और अंगकरण की पूजा करते हैं।

भगवान शिव अपनी शक्ति थय्यालनायकी अम्माई, जो अपने साथ थाईलम, संजीवी तथा विल्वा पेड़ की जड़ों की रेत, जिसके मिश्रण से 4,480 बीमारियों का इलाज हो सकता है, के साथ इस क्षेत्र में आए तथा रोग से पीड़ित भक्तों को मुक्त किया और वैईथीयनाथ स्वामी के नाम से जाने गए

लाखों लोग इस भव्य मंदिर में दर्शन करने प्रतिवर्ष आते हैं और अपने अच्छे स्वास्थ्य के लिए यहाँ प्रार्थना करते हैं। मान्यता है कि भक्तों की मनोकामनाएँ यहाँ पर पूर्ण होती हैं। प्रथाओं के अनुसार एक विशेष प्रकार से दवा बनाई जाती है। यह प्रथा अभी भी यहाँ पर प्रचलित है।

‘शुक्ल पक्ष के दिन भक्तों को अंगसंथना तीर्थम (पवित्र जलधर) में स्नान करना चाहिए। उसी जलाशय से रेत को जटायु कुंडम के विभूति प्रसाद के साथ मिश्रित किया जाता है एवं सिद्धामीर्थम तीर्थम के कुंभ से आप पवित्र जल ले सकते हैं


  यह स्थान प्रसिद्ध है नादी ज्योत‍िधाम के लिए - जहाँ पर किसी भी व्यक्ति के वर्तमान, भूत, एवं भविष्यकाल का पता लगा सकते हैं। नगर में हर तरफ आप नादी ज्योतिधाम के केंद्र देख सकते हैं।      

भगवान मुरुगा के समक्ष उस मिश्रण को पीसते हैं एवं इस क्रिया के दौरान पंजाकारा झाबा की प्रथा का पालन करते हैं। प‍िसे हुए मिश्रण की छोटी-छोटी गोली बनाई जाती है। शक्ति समाधि के समक्ष उस दवा की पूजा-अर्चना की जाती है तथा सिद्धामिरथा जलाशय से पवित्र जल के साथ इस दवा का सेवन होता है। एक तमिल भाषा के अनुसार पाँच जन्मों तक कोई भी बीमारी आपको पीड़ित नहीं करेगी।

मंदिर में गुरुकुल के वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि भगवान शिव वैथियंधर के रूप में माने जाते हैं। चेव्व दोषम के लिए एक इलाज है। भगवान कामधेनु एवं करपगा विरुकशम के समान भगवान गणपति की भी पूजा होती है।

विवाह से संबंधित समस्याएँ, जायदाद से संबंधित विषय, छेवा थिसाई इन समस्याओं के लिए एक बहुत ही प्रसिद्ध क्षेत्र है। भगवान मुरुगा भक्तों को पुत्र भाग्यम का आशीर्वाद देते हैं।

इस क्षेत्रम में सभी नवग्रह एक कड़ी में खड़े हैं। यह स्थान उपयु्क्त है ग्रह दोषम को हटाने के लिए। जनश्रुति के अनुसार बिल्व, चंदन तथा विभूति पदार्थों की मिश्रित दवा से भगवान सभी भक्तों का इलाज करते हैं। क्षेत्रम का पेड़ चार युगों के लिए भिन्न हैं। सतयुग में कदम्बा के रूप में था। त्रेता युग में बिल्वा रूप में, द्वापर युग में वाकुला के रूप में एवं कलियुग में नीम के रूप में।

भव्य मंदिर में स्थित पवित्र कुंभ को सिद्धामीर्था कुंभ कहते हैं। कीरत युग में कामधेनु इस क्षेत्रम के निकट आए थे एवं लींगा पर अत्यधिक मात्रा में दूध गिरने के वजह से वह कुंभ में बह गया एवं यह कुंभ पवित्र धार्मिक स्थल माना जाता है। प्रेतबाधा से पीड़ित व्यक्ति अगर इस कुंभ में स्नान करें तो उस आत्मा से वे मुक्त हो जाएँगे

भगवान वैईथीय्नाथस्वामी के नाम से प्रसिद्ध इस नगर को वैईथीसवरन कोइल के नाम से जाना जाता है। यह स्थान प्रसिद्ध है नादी ज्योत‍िधाम के लिए, जहाँ पर किसी भी व्यक्ति के वर्तमान, भूत एवं भविष्यकाल का पता लगा सकते हैं। नगर में हर तरफ आप नादी ज्योतिधाम के केंद्र देख सकते हैं।

कैसे पहुँचें : रेल के माध्यम से चेन्नई के थानजावर राह से वैथीसवरन रेलवे स्टेशन पर पहुँच सकते हैं।

सड़क मार्ग : वैथीसवरन कोइल चिदम्बरन के पास स्थित है, जो कि चेन्नई से 235 किमी है। चिदम्बरन से 26 किमी की दूरी पर भगवान शिव के क्षेत्रम के लिए प्रसिद्ध है। बस सेवा के माध्यम से आप वैथीसवरन कोइल 35 से 40 मिनट में पहुँच सकते हैं

वायु मार्ग : चेन्नई हवाई अड्‍डा सबसे निकट है। चेन्नई से आप यहाँ तक सड़क मार्ग या रेलमार्ग से पहुँच सकते हैं।

Monday, December 22, 2014

मीराँ दातार


एक ऐसा स्थल, जहाँ मुस्लिमबंधु और हिन्दू दोनों दुआ माँग कर धर्म की दहलीज को एक करते हुए अपने को खुशनसीब मानते हैं। आइए धर्मयात्रा की इस कड़ी में गुजरात के उनावा गाँव मीराँ दातार की पवित्र दरगाह पर चलें।

उत्तर गुजरात की ऑइल सिटी मेहसाणा से पालनपुर हाइवे पर 19 किमी दूर एक छोटा-सा गाँव है- उनावा। इस कृषि प्रधान गाँव में स्थित है हजरत मीराँ सैयद अली दातार की पवित्र दरगाह, जिसके कारण यह गाँव देश-विदेश में पहचान बनाए हुए है।


गाँव के प्रवेश द्वार पर 600 साल पुरानी सैयद मीराँ दातार की इस दरगाह में मुस्लिम ही नहीं हिन्दू लोग भी बहुत आस्था रखते हैं। श्रद्धालुओं का ऐसा मानना है कि यहाँ शीश टेकने से भूत-प्रेत सहित कई अन्य बीमारियाँ दूर होती हैं और जो मन्नत माँगी जाए वह पूरी होती है। दरगाह में प्रवेश करते ही मन में एक अजीब-सी पवित्र अनुभूति होती है।

इस दरगाह के प्रति लोगों की अटूट आस्था की तरह इसका इतिहास भी विशेष महत्व रखता है। एक हिन्दू कवि शाह सोरठ ने सैयद अली को मीराँ दातार का नाम दिया था। मीराँ यानी मानव जाति को प्रेम करने वाला और दातार का अर्थ होता है दानवीर। तब से सैयद अली मीराँ दातार के नाम से जाने जाते हैं।



ऐसा कहा जाता है कि हजरत सैयद अली मीराँ दातार के पूर्वज बुखारा से भारत आए थे। उनका जन्म मुस्लिम तारीख 29 रमजान में 879 ‍हिजरी में अहमदाबाद में खानपुर इलाके के सैयदवाड़ा में हुआ था।



जब वे 16 वर्ष के थे, तब मध्यप्रदेश के मोडुगढ़ में एक जादूगर का आतंक फैला हुआ था। कोई भी उसका सामना करने की हिम्मत भी नहीं कर पाता था, लेकिन सैयद अली ने उस जादूगर का खात्मा कर मोडुगढ़ को उसके आंतक से मुक्त किया। वे 29 सफर 898 हिजरी के दिन शहीद हुए थे और उनको उनावा में दफनाया गया था। तब से यहाँ श्रद्धालुओं की लंबी कतारें लगती हैं।



दुआ और दवा : दरगाह में परंपरागत धार्मिक सारवार के साथ दवा का नया प्रयोग शुरू ‍किया गया है। इस बारे में अधिक जानकारी देते हुए दरगाह ट्रस्ट के सैयद छोटू मियाँ कहते हैं कि दरगाह में श्रद्धापूर्वक धार्मिक विधि की जा रही है। लेकिन हाल ही में सरकार के सहयोग से यहाँ दुआ और दवा का संगम हुआ है। यहाँ हर मंगलवार को डॉक्टर आते हैं और मानसिक रूप से बीमार लोगों का मुफ्त में इलाज करते हैं।-हरेसुथा

कैसे पहुँचें?
वायुमार्ग : देश की सभी मेट्रो सिटी और बड़े शहरों से आप अहमदाबाद तक विमान सेवा से पहुँच सकते हैं। फिर अहमदाबाद से आपको सड़क मार्ग से यात्रा करनी पड़ेगी।
रेल मार्ग : उनावा उन्झा और मेहसाणा रेलवे स्टेशन से क्रमश: 5 कि.मी‍. और 19 कि.म‍ी. की दूरी पर है।
सड़क मार्ग : उनावा दिल्ली-पालनपुर-अहमदाबाद मार्ग में स्‍थित है। उनावा अहमदाबाद और पालनपुर से क्रमश: 95 कि.मी. और 55 कि.मी की दुरी पर स्थित है।

मध्यप्रदेश का सबसे बड़ा शनि मंदिर

धर्मयात्रा की इस बार की कड़ी में हम आपको लेकर चलते हैं मध्यप्रदेश के सबसे बड़े शनि मंदिर में। यह मंदिर विंध्याचल की मनोरम पहाड़ियों में बाई नामक ग्राम है में स्थित है। बाई इंदौर से करीब 30 किमी की दूरी पर है।

वैसे तो मंदिर काफी नया है, परंतु यह अत्यंत भव्य है और इसके बनने की कहानी भी उतनी ही रोचक है। मंदिर के पुजारी नंदकिशोर मीणा ने बताया कि जयपुर निवासी मधुबाला सुरेन्द्रसिंह मीणा का ससुराल बाई नामक ग्राम में था। स्वभाव से दानवीर होने के कारण उन्होंने जनकल्याण के लिए यहाँ एक धर्मशाला बनाने का विचार किया।

धर्मशाला का निर्मा़ण अभी शुरू ही हुआ था कि खुदाई में भगवान शनि महाराज की मूर्ति निकल आई। मूर्ति निकलने के बाद मधुबाला सुरेन्द्रसिंह मीणा ने कई विद्वानों से विचार- विमर्श किया और अंतत: इस निष्कर्ष पर पहुँचीं कि वहाँ धर्मशाला के बजाय भव्य शनि मंदिर का निर्माण कराया जाए।

मंदिर के निर्माण में करीब 2 करोड़ रुपए का खर्च आया। 27 अप्रैल 2002 को


मंदिर में शनि देव की भव्य मूर्ति की स्थापना की गई। मंदिर में शनि देव के साथ-साथ सूर्य, राहु, केतु , मंगल, बुध, बृह्स्पति, शुक्र, चंद्र कुल नवग्रहों की स्थापना की गई। मंदिर में अत्यंत दुर्लभ उत्तरमुखी गणेश और दक्षिण मुखी हनुमान की मूर्तियाँ भी विराजमान हैं।

प्रत्येक वर्ष शनि जयंती पर यहाँ 5 दिवसीय मेले का आयोजन किया जाता है, जिसमें लाखों की संख्या में श्रद्धालु यहाँ आते हैं। शनि अमावस्या पर भी यहाँ लाखों लोग आते हैं।

मंदिर ट्रस्ट ने गाँव में धर्मशाला और स्कूल बनाने में भी पर्याप्त सहयोग दिया है। श्रावण मास में जब कावड़ यात्री ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग पर जलाभिषेक करने के लिए जाते हैं तो मंदिर ट्रस्ट उनके ठहरने की पूरी व्यवस्था करता है।

कैसे पहुँचें:
सड़क मार्ग: इंदौर (30 किमी) और खण्डवा (100 किमी) से बाई पहुँचने के लिए बस एवं टैक्सियाँ आसानी उपलब्ध हैं।
रेल मार्ग: निकटतम रेलवे स्टेशन चोरल करीब 10 किमी की दूरी पर है। चोरल इंदौर-खण्डवा मीटरगेज लाइन पर स्थित है।
वायुमार्ग: निकटतम एयरपोर्ट देवी अहिल्या एयरपोर्ट करीब 40 किमी की दूरी पर स्थित है।

उज्जैन की मां गढ़ कालिका का मंदिर

कालिदास की आराध्य देवी
 

धर्मयात्रा की इस बार की कड़ी में हम आपको ले चलते हैं उज्जैन के कालीघाट स्थित कालिका माता के प्राचीन मंदिर में, जिसे गढ़ कालिका के नाम से जाना जाता है। देवियों में कालिका को सबसे महत्वपूर्ण माना गया है।

गढ़ कालिका के मंदिर में माँ कालिका के दर्शन के लिए रोज हजारों भक्तों की भीड़ जुटती है। तांत्रिकों की देवी कालिका के इस चमत्कारिक मंदिर की प्राचीनता के विषय में कोई नहीं जानता, फिर भी माना जाता है कि इसकी स्थापना महाभारतकाल में हुई थी, लेकिन मूर्ति सतयुग के काल की है। बाद में इस प्राचीन मंदिर का जीर्णोद्धार सम्राट हर्षवर्धन द्वारा किए जाने का उल्लेख मिलता है। स्टेटकाल में ग्वालियर के महाराजा ने इसका पुनर्निर्माण कराया।

वैसे तो गढ़ कालिका का मंदिर शक्तिपीठ में शामिल नहीं है, किंतु उज्जैन क्षेत्र में माँ हरसिद्धि ‍शक्तिपीठ होने के कारण इस क्षेत्र का महत्व बढ़ जाता है। पुराणों में उल्लेख मिलता है कि उज्जैन में ‍शिप्रा नदी के तट के पास स्थित भैरव पर्वत पर माँ भगवती सती के ओष्ठ गिरे थे।

यहाँ पर नवरा‍त्रि में लगने वाले मेले के अलावा भिन्न-भिन्न मौकों पर उत्सवों और यज्ञों का आयोजन होता रहता है। माँ कालिका के दर्शन के लिए दूर-दूर से लोग आते हैं। धर्मयात्रा की कड़ी में इस बार की यात्रा आपको कैसी लगी, हमें जरूर बताएँ।


कैसे पहुँचें?
वायुमार्ग: उज्जैन से इंदौर एअरपोर्ट लगभग 65 किलोमीटर दूर है।
रेलमार्ग: उज्जैन से मक्सी-भोपाल मार्ग (दिल्ली-नागपुर लाइन), उज्जैन-नागदा-रतलाम मार्ग (मुंबई-दिल्ली लाइन) द्वारा आप आसानी से उज्जैन पहुँच सकते हैं।
सड़क मार्ग: उज्जैन-आगरा-कोटा-जयपुर मार्ग, उज्जैन-बदनावर-रतलाम-चित्तौड़ मार्ग, उज्जैन-मक्सी-शाजापुर-ग्वालियर-दिल्ली मार्ग, उज्जैन-देवास-भोपाल मार्ग आदि देश के किसी भी हिस्से से आप बस या टैक्सी द्वारा यहाँ आसानी से पहुँच सकते हैं।

आदिशक्ति एक‍वीरा

परशुराम की देवी माँ...आदिमाया
धर्मयात्रा की इस बार की कड़ी में हम आपको लेकर चलते हैं आदिशक्ति एक‍वीरा देवी की शरण में। सूर्यकन्‍या ताप्ति नदी की उपनदी पांझर नदी के तट पर स्थित अति प्राचीन मंदिर में विराजित हैं आदिमाया एकवीरा देवी। महाराष्ट्र के धुलिया शहर के देवपुर उपनगर में विराजित यह स्वयंभू देवी महाराष्ट्र सहित मध्यप्रदेश, राजस्थान, कर्नाटक और गुजरात के कई घरानों में श्रद्धालुओं द्वारा कुलदेवी के रूप में पूजी जाती हैं।....

आदिशक्ति एकवीरा देवी अपने पराक्रम से तीनों लोकों में प्रसिद्ध परशुराम की माँ के स्वरूप में जानी जाती हैं। एकवीरा तथा रेणुका देवी आदिमाया पार्वती के ही रूप हैं। ऐसी धारणा है कि राक्षसों का नाश करने के लिए देवी ने अनेक अवतार धारण किए थे। पुराणों के अनुसार जमदग्‍नी ऋषि की पत्नी रेणुका देवी के परशुराम एकमात्र वीर पुत्र होने के कारण ही देवी को एकवीरा नाम से संबोधित किया जाता है।


प्रात:काल पांझर के जल में नहाकर जब सूर्य की किरणे देवी के चरणों में शरण लेती है तब वह मनमोहक दृश्य आँखों को बड़ा सुकून देने वाला होता है। उस समय आदिमाया अष्टभुजा का अद्भुत रूप देखते ही बनता है। देवी के निकट ही गणपति और तुकाईमाता की चतुर्भुज प्रतिमाएँ विराजित हैं। मंदिर के प्रवेश द्वार पर अखंड पत्थरों से तराशे गए दो भव्य हाथी आपका स्वागत करते हैं।

यह अति प्राचीन मंदिर पूर्व में हेमाड़पंथी था। कहते हैं कि देवी अहिल्याबाई होलकर ने इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था। इस परिसर में प्राचीन शमी का वृक्ष है जहाँ वृक्ष के नीचे शमी देव का भारत में स्थित एकमात्र मंदिर है। यहीं पर महालक्ष्मी, विट्ठल-रुक्मिणी, शीतला माता, हनुमान और काल भैरव सहित परशुराम का भी मंदिर है।



एकवीरा देवी के मंदिर में कई भक्त नियमित रूप से पूजा, आराधना और आरती में शामिल होते हैं। नवरात्रि के दौरान यहाँ भव्य मेले का आयोजन किया जाता है। इस मेले को देखने के लिए लाखों की संख्या में लोग यहाँ पहुँचते हैं। देवी के द्वार पर आने वाले श्रद्धालुओं का पूरा विश्वास है कि एकवीरा देवी के दर्शन से सभी संकट दूर होते हैं और देवी की कृपा दृष्टि से सभी मनोकामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं।

कैसे पहुँचें:
वायु मार्ग: धुलिया के सबसे निकटतम एयरपोर्ट नासिक (187 किमी) और औरंगाबाद (225 किमी) है।
रेल मार्ग: मुंबई की ओर से आने वाली रेल से चालीसगाँव तक पहुँचा जा सकता है, जहाँ से प्रत्येक एक घंटे में धुलिया के लिए रेल उपलब्ध है। भुसावल-सूरत रेलमार्ग से नरडाणा स्टेशन भी निकट स्थित है। यहाँ से धुलिया आसानी से पहुँचा जा सकता है।
सड़क मार्ग: मुंबई-आगरा तथा नागपुर-सूरत राष्ट्रीय मार्ग धुलिया शहर से होकर जाते हैं। धुलिया मुंबई से 425 किमी, इंदौर से 250 किमी दूर स्थित है।

कोल्लूर मुकाम्बिका देवी मंदिर




“कोल्लूर या कोलापुरा नाम की उत्पत्ति कोला महर्षि से हुई थी। यहाँ पर सदियों कामासुर नामक राक्षस ने उत्पात मचा रखा था। इस राक्षस से यहाँ के लोगों की रक्षा करने के लिए कोला महर्षि ने देवी महालक्ष्मी की आराधना की। वहीं अमरत्व पाने के लिए कामासुर दैत्य शिवशंभु से वरदान पाने के लिए कठोर तप करने लगा।

वरदान के समय माँ ने इस दैत्य को गूँगा कर दिया। इसके बाद दैत्यराज को मूकासुर के नाम से जाना जाने लगा। आवाज खो देने के बाद भी दैत्य ने संत-महापुरुषों और आम लोगों को सताना बंद नहीं किया। तब महर्षि कोला की प्रार्थना पर माँ ने मूकासुर का वध कर दिया। इस कारण से इस मंदिर को कोल्लूर मुकाम्बिका मंदिर के नाम से जाना जाता है”

महर्षि कोला की प्रार्थना पर माँ महालक्ष्मी ने मूकासुर का वध कर दिया। इस कारण से इस मंदिर को कोल्लूर मुकाम्बिका मंदिर के नाम से जाना जाता है।


कोल्लूर मुकाम्बिका देवी का यह मंदिर वास्तुकला के रूप में एक आश्चर्य कहा जा सकता है। मंदिर की परिक्रमा में प्रवेश करते ही आपको स्वयं के अंदर अद्भुत शक्ति का संचार होता महसूस होगा। कोल्लूर मुकाम्बिका मंदिर के गर्भगृह में माँ की पाषाण पिंडी है। यहाँ ज्योति के रूप में देवी की आराधना की जाती है। इसका स्वरूप बेहद निराला है।

पानीपीठ नामक पवित्र जगह को एक सोने के चक्र जैसी ज्योति ने घेरा हुआ है। माना जाता है कि जैसे श्रीचक्र में ब्रह्मा-विष्णु-महेश का वास होता है, वैसे ही इस ज्योति चक्र में माँ का वास है। गर्भगृह में प्रकृति-शक्ति, काली, लक्ष्मी और सरस्वती माँ की मूर्तियाँ भी प्रतिष्ठित की गई हैं। ज्योति चक्र के पश्चिमी भाग में श्री देवी की पद्मासन में बैठी अत्यन्त रमणीय मूर्ति है, जिनके हाथों में शंख-चक्र आदि सुसज्जित हैं।




मंदिर में गणेशजी की दशभुजा मूर्ति भी प्रतिष्ठित है। पश्चिम भाग में आदि शंकराचार्य का तपस्या पीठ भी है। यहाँ आदि शंकराचार्य की एक धवल मूर्ति स्थापित है, साथ ही यहाँ उनके उपदेशों का भी उल्लेख किया गया है। यहाँ के दर्शन करने के लिए विशेष अनुमति की आवश्यकता होती है। मंदिर के उत्तरी-पश्चिमी भाग में यज्ञशाला है, जहाँ वीरभद्रेश्वर की मूर्ति स्थापित है। माना जाता है कि वीरभद्रेश्वर ने मूकासुर वध में माता का साथ दिया था।- नागेंद्र त्रासी

उड्डिप्पी जिले की सुपर्णिका नदी के किनारे बने कोल्लूर मुकाम्बिका मंदिर में विजया दशमी का दिन विद्या दशमी के रूप में मनाया जाता है। जी हाँ, इस दिन पालक यहाँ से अपने बच्चों की औपचारिक शिक्षा का शुभारंभ करते हैं। मान्यता है कि ऐसा करने से उनके बच्चों में अच्छी बुद्धि का संचार होगा

एक मुस्लिम महिला का चमत्कारिक मंदिर

अहमदाबाद,
अहमदाबाद। अहमदाबाद से 40 किलोमीटर की दूरी पर 'झूलासन' नाम का एक गांव है। यहां पर एक मंदिर है और शायद यह एक अकेला हिन्दू मंदिर है जिसमें मुस्लिम महिला की पूजा की जाती है। उल्लेखनीय है कि यह गांव अंतरिक्ष यात्री सुनीता विलियम्स के पिताजी का पैतृक ग
गांव के लोगों के अनुसार 250 साल पहले 'डोला' नाम की एक मुस्लिम महिला ने उपद्रवियों से अपने गांव को बचाने के लिए उनसे बहुत ही वीरतापूर्वक लड़ाई लड़ी थी और अपने गांव की रक्षा करते हुए उसने अपनी जान दे दी थी। 
कहा जाता है कि मरने के बाद उनका शरीर एक फूल में परिवर्तित हो गया। इस चमत्कार और बलिदान के चलते लोगों ने उस फूल के ऊपर ही उसके नाम से एक मंदिर का निर्माण कर दिया।

इस मंदिर में मुस्लिम महिला 'डोला' की कोई मूर्ति या तस्वीर नहीं है। पत्थर का एक यंत्र है और उसके ऊपर साड़ी डालकर पूजा की जाती है। यहां जो भी मन्नत मांगता है वह अवश्य पूरी होती है। जिस तरह राजस्थान में सती माता के मंदिर है यह उसी तरह का मंदिर है।

गांव के अमीर निवासियों ने इस मंदिर को और भी भव्य बनाने के लिए 4 करोड़ रुपए की राशि इकट्ठा की थी और अब यह मंदिर भव्य आकार ले चुका है।

धर्म के नाम पर लड़ने वाले लोगों के लिए यह एक मिसाल है कि ऐसे में एक गांव में सीधे-सच्चे मन वाले लोगों ने बिना किसी का धर्म देखे उसके कर्मों को सराहा है।

मुस्लिम महिला की वीरता के लिए उसके बलिदान को याद करते हुए उसकी याद में एक मंदिर ही बना दिया है और अपनी कृतज्ञता को उसकी पूजा करके व्यक्त करते हैं।

यहीं नहीं, अब लोगों में विश्वास भी जम गया है कि 'डोला' आज भी हमारे बीच है और वह हमारे बीच रहकर हमारे गांव की रक्षा ही नहीं करती बल्कि लोगों के दु:ख-दर्द भी दूर करती है। 
इस मंदिर को 'डॉलर माता' का मंदिर भी कहा जाता है, क्योंकि 7,000 की जनसंख्या वाले इस गांव के 1,500 निवासी अब अमेरिका के नागरिक हैं। सुनीता विलियम्स जब अंतरिक्ष यात्रा पर गईं तो उनकी सुरक्षित वापसी के लिए इस मंदिर में एक अखंड ज्योति जलाई गई, जो 4 महीने तक लगातार जलती रही। झूलासन केलवानी मंडल के अध्यक्ष हैं रजनीश वाघेला। वे ही इस मंदिर की व्यवस्था देखते हैं।


रावण की पूजा नहीं ‍की तो....

आस्था और अंधविश्वास की इस बार की कड़ी में हम आपको ले चलते हैं उज्जैन जिले के चिखली ग्राम में जहाँ ऐसी मान्यता है कि यदि रावण को पूजा नहीं गया तो पूरा गाँव जलकर भस्म हो जाएगा।

आप इसे आस्था मानें या अंधविश्वास लेकिन यहाँ परम्परा अनुसार प्रत्येक वर्ष चैत्र नवरात्र में दशमी के दिन पूरा गाँव रावण की पूजा में लीन हो जाता है। इस दौरान यहाँ रावण का मेला लगता है और दशमी के दिन राम और रावण युद्ध का भव्य आयोजन होता है। पहले गाँव के प्रमुख द्वार के समक्ष रावण का एक स्थान ही हुआ करता था, जहाँ प्रत्येक वर्ष गोबर से रावण बनाकर उसकी पूजा की जाती थी लेकिन अब यहाँ रावण की एक विशाल मूर्ति है।


बाबूभाई रावण यहाँ के पुजारी हैं। रावण की पूजा-पाठ करने के कारण ही उनका नाम बाबूभाई रावण पड़ा है। इनका कहना है कि मुझ पर रावण की कृपा है। गाँव में जो भी विपत्ति आती है तो मुझे रावण के सामने अनशन पर बैठना होता है। जैसे यदि गाँव में पानी नहीं गिरता है तो मैं अनशन पर बैठ जाता हूँ तो तीन दिन में जोरदार झमाझम बारिश हो जाती है।

यहाँ के सरपंच कैलाशनारायण व्यास का कहना है कि यहाँ रावण की ही पूजा होती है। पूजा करने की परम्परा वर्षों पुरानी है। एक वर्ष किसी कारणवश रावण की पूजा नहीं की गई थी और न ही मेला लगाया गया था तो पूरे गाँव में अकस्मात आग लग गई थी, ‍मुश्किल से सिर्फ एक घर ही बच सका।



एक स्थानीय महिला पद्मा जैन ने कहा कि दशमी के दिन यहाँ राम-रावण युद्ध का आयोजन होता है। पूजा नहीं किए जाने के कारण गाँव में एक बार नहीं दो बार आग लग चुकी है। एक बार तो यहाँ वीडियो लगाकर यह देखने का प्रयास किया गया था कि मेला नहीं लगाने पर आग लगती है कि नहीं। उस दौरान इतनी तेज आँधी चली कि सब कुछ उड़ गया। यह मैंने मेरी आँखों से देखा है।

स्पर्श से भगाएँ रोग...

क्यकिसी व्यक्ति का स्पर्श आपकी लाइलाज बीमारी को ठीक कर सकता है। क्या ईश्वर से ऊपर कोई शक्ति है ...आप मानें या न मानें लेकिन केरल में रहने वाले एक व्यक्ति का यही दावा है। जी हाँ, आस्था और अंधविश्वास की इस कड़ी में हम आपकी मुलाकात करवा रहे हैं केरल के आचार्य एमडी रवि मास्टसे। एमडी मास्टर खुद को ‘ब्रह्मगुर’ कहते हैं। इनका दावा है कि वे सिर्फ स्पर्श के माध्यम से व्यक्ति को स्वस्थ कर सकते हैं। उसके नकारात्मक विचारों को सकारात्मक विचारों में बदल सकते हैं। इसके साथ ही वे अपने अनुयायियों को नकारात्मक ऊर्जा से दूर रखने के लिए पवित्र जल भी देते हैं।

यह जानकारी मिलने के बाद हमारी टीम केरल राज्य के कोट्टयम जिले के चँगनास्सेरी नामक स्थान पर पहुँची, जो त्रिवेंद्रम से 135 और कोच्चि से करीब 87 किलोमीटर दूर स्थित है। इस जगह को ‘ब्रह्म धर्माल’ के नाम से जाना जाता है।

जब हम वहाँ पहुँचे तो वहाँ लगी भीड़ को देखकर चौंक गए। बातचीत में पता चला कि ये सभी लोग ‘ब्रह्मगुर’ के नाम से पहचाने जाने वाले आचार्य एमडी रवि मास्टर से इलाज करवाने आए थे। हमने देखा कि एक तेजस्वी व्यक्ति अनोखे ढंग से उनके अंदर की नकारात्मक ऊर्जा बाहर निकाल रहे थे और सकारात्मक ऊर्जा से उनकी बीमारी दूर कर रहे थे। ये ही आचार्य एमडी रवि मास्टर थे।

उन्होंने हमें बताया कि उनके उपचार की यह प्रणाली ‘ब्रह्मज्ञा’ की आध्यात्मिक शक्तियों पर आधारित है, जो एक सर्वव्यापी ऊर्जा है। वे इसी ऊर्जा से मरीज की बीमारियों का इलाज करते हैं। खास बात यह है कि उनका यह उपचार सभी के लिए निःशुल्क है।

रवि मास्टर का यह भी दावा है कि वे अपनी प्रार्थना के वक्त किसी भी देवी-देवता से बात कर सकते हैं, पर दूसरी ओर वे यह भी मानते हैं कि वे कोई जीवित ईश्वर नहीं हैं। वे इस कार्य को अपनी किस्मत मानते हैं, जिसका उद्देश्य लोगों की सेवा करना है।



उनके पास आने वाले लोगों का दावा है कि वे बिना किसी दवा के सिर्फ अपने ब्रह्मज्ञान के जरिये लोगों की तकलीफें हर लेते हैं। इसके लिए सबसे पहले वे बीमार की नकारात्मक ऊर्जा को बाहर निकालते हैं, फिर अपने हाथों को माध्यम बनाकर ब्रह्मांड की सकारात्मक ऊर्जा उसके अंदर संचारित करते हैं। इस प्रकिया के बाद रोगी बिलकुल स्वस्थ हो जाता है। यहाँ के लोगों की मान्यता है कि ब्रह्मगुरु के हाथों और माथे से लगातार सकारात्मक ऊर्जा निकलती रहती है। इस ऊर्जा के तेज के कारण उनके पास नशे की लत से छुटकारा पाने के लिए आए लोग बदहवास हो जाते हैं।

ब्रह्मगुरु के तेज को न सह पाने के कारण वे अजीबोगरीब हरकतें करने लगते हैं। ब्रह्मगुरु कुछ ही देर में उनकी नकारात्मक ऊर्जा को बाहर कर उनमें सकारात्मकता का संचार करते हैं। माना जाता है कि इस छोटी-सी प्रकिया के बाद नशेड़ी व्यक्ति हमेशा के लिए नशे की लत से छुटकारा पा जाता है।




रवि मास्टर का मानना है कि इस तरह के सारे अवगुण नकारात्मक प्रवृत्ति की देन हैं। अपने उपचार से वे रोगियों को शांत व संयमित बना देते हैं।

नशे की लत के अलावा उनके धर्मालय में उनसे उपचार करवाने के लिए कई तरह के मानसिक और शारीरिक रोगों से ग्रसित लोग आते हैं, जिन्हें वे ठीक करने का दावा करते हैं। आश्चर्य की बात यह भी है कि वे सोराइसिस नामक घातक चर्मरोग का भी उपचार कर सकते हैं, जिसकी अभी तक कोई दवा नहीं बनी है।

उनके इस आश्रम में किसी भी देवी-देवता की कोई मूर्ति नहीं है, जिसकी पूजा-अर्चना की जाती हो। उनका मानना है कि एक सर्वव्यापी शक्ति है, जो ईश्वर, अल्लाह या जीजस सबसे ऊपर है या मानें तो इन ईश्वरीय शक्तियों की जन्मदाता है।

पण्डोखर महाराज का दावा, लाइलाज का इलाज

यह भला कैसे संभव हो सकता है कि कोई दस-ग्यारह वर्ष की कच्ची उम्र का सामान्य बालक बिना किसी यांत्रिक pandokahr_s_1जांच किये, बिना कोई प्रशिक्षण प्राप्त किये और किसी भी प्रकार का परिचय अथवा व्यक्तिगत जानकारी प्राप्त किये बिना ही किसी की भी बीमारी या स्वास्थ्य से संबंधित सटीक जानकारी दे दे? किसी दंपती के विवाह के पच्चीस, तीस या चालीस वर्ष तक कोई संतान उत्पन्न न हो और चिकित्सा विज्ञानी भी उसे संतोनोत्पत्ति के लिये अयोग्य घोषित कर दें, लेकिन पूरी तरह अनजान व अनभिज्ञ वह बालक कहे कि संतान होगी और अमुक तारीख या अमुक सन् में होगी तो इसे सामान्यजन क्या कहेंगे? इतना ही नहीं बालक के कथनानुसार संतानोत्पत्ति के लिए अयोग्य ठहराये गये ऐसे ही अनेक दम्पत्तियों को संतान सुख प्राप्त हो जाये तो इसे क्या कहा जायेगा? रोग गंभीर है और चिकित्सा विशेषज्ञ समझ नहीं पा रहे हैं, लेकिन लक्षणानुसार इलाज कर रहे हों और रोगी को स्वास्थ्य लाभ नहीं मिल पा रहा है।

ऐसे रोगी से प्रथम मुलाकात में ही अबोध बालक कहे कि आज से लाभ होगा और अमुक समय में पूर्ण स्वस्थ्य हो जायेंगे। बालक के कथनानुसार रोगी पूर्ण स्वस्थ्य हो जाये तो इसे चिकित्सा विज्ञान किस रूप में स्वीकार करेगा ? व्यक्ति कई वर्ष से लापता है, जिसका कोई अता-पता किसी को भी नहीं मालूम है और न ही पुलिस तंत्र लापता व्यक्ति का सुराग लगा पा रहा हो। ऐसे में उक्त अजनवी बालक कहे कि लापता व्यक्ति का अमुक नाम है, अमुक समय व स्थिति में घर से गया अथवा लापता हुआ है, वह सुरक्षित है और फलां समय तक सुराग मिलेगा अथवा स्वत: घर आ जायेगा। यदि ऐसा ही भविष्य में घटित हो जाये, लापता का मिलन हो जाये तो इसे हम या समाज क्या संज्ञा देगा।

चोरी, डकैती या हत्या हो गई है और अपराधी शातिर है, अनजान है जिसका सूत्र कोई तंत्र पाने में अक्षम है, लेकिन पीडित पक्ष या तंत्र अनजान व मासूम बालक के पास जाये और बालक स्वत: परत दर परत घटना के विषय में जानकारी देकर अपराधी को बेनकाब कर दे तो क्या विश्वास किया जा सकता है ? दूर देश में बैठे व्यक्ति से मिलने या उसकी गतिविधि की सटीक जानकारी प्राप्त करने के लिए हमें या आपको उस तक पहुंचना अनिवार्य होगा, चाहे सडक मार्ग या रेलमार्ग से जाना पडे अथवा वायुमार्ग से पहुंचना पडे अर्थात कुछ घंटे तो दूरस्थ व्यक्ति तक पहुंचने में निश्चित ही गंवाना पडेंगे, लेकिन यदि बिना समय जाया किये पलक झपकते ही किशोरवय बालक विदेश में रहने वाले व्यक्ति का सच यह बयान कर दें और उसके बताये अनुसार संचार माध्यमों से हम पुष्टि कर लें तो इसे क्या कहेंगे ? घोर नास्तिक इंसान को भी यदि दुनिया का कोई व्यक्ति या तंत्र आस्तिक न बना सके और उसे चंद मिनटों में आस्तिक बनाकर अपने कदमों में यदि कोई नवयुवक झुका ले तो इसे कौन सा करिश्मा कहेंगे ? मर्द घर व समाज की नजर में चरित्रवान है और वह पत्नी को देवी स्वरूपा मानता है अथवा p_25औरत पति को परमेश्वर मान समाज की नजर में सावित्री के समान पतिव्रता है। ऐसे स्त्री या पुरूष के सामने आते ही उनसे पूरी तरह अनभिज्ञ यह युवक सरेआम यह बता दे कि उनके कहां-कहां अवैध संबंध है और किसके साथ, किस जगह और किस समय बेआवरू हुए हैं तो इसे आप-हम किस रूप में स्वीकार करेंगे ? हजारों इंसानों के बीच से यदि कोई अनजान युवक आपको आपके नाम, पिता-माता या दादा-दादी आदि संबंधियों के नाम सहित पुकारकर बुला ले। इतना ही नहीं आपके मकान नं., फोन व मोबाइल नं. बताकर भी भीड से बुला ले तो आप, हम, समाज या आधुनिक विज्ञान इसे क्या कहेगा ?

उक्त अतिश्योक्तिपूर्ण समस्त प्रकार के सवालों का यदि जवाब चाहिए है और ऐसे नौजवान से यदि साक्षात्कार करना कोई भी चाहता है तो यह बहुत ही आसान व सरल है। ऐसे अनंत प्रश्नों, अनेक जिज्ञासाओं व शंकाओं का समाधान पाने के लिएए किसी शुल्क, प्रसाद या सिफारिस के कोई भी सामान्यजन सरलता व सहजता से इस करिश्माई व्यक्तित्व से साक्षात्कार कर सकता है। वह दस-बारह वर्ष का बालक किशोर या नौजवान कोई और नहीं वह स्वयं गुरूशरण ही हैं। गुरूशरण शर्मा से अनंत श्री विभूषित, पूज्यपाद और त्रिकालदर्शी संत जैसे विशेषणों को धारण करने वाले स्वयं गुरूशरण महाराज है।

मध्यप्रदेश राज्य के बुंदेलखण्ड स्थित दतिया जिलातंर्गत आने वाली भाण्डेर तहसील के छोटे से गगाम पण्डोखर को धाम बनाकर विश्व मानचित्र पर स्थापित करने जा रहे श्री गुरूशरण महाराज स्वयं त्रिकालदर्शी हैं। 15 अप्रैल 1983 को भिण्ड जिले के छोटे से गगाम बरहा में श्रीमती ठाकुर बेटी की कोख से अवतरित दिव्य बालक के पिता पं. श्री अशोक कुमार शर्मा हैं। पं. p35श्री अशोक शर्मा के पूर्वज क्षेत्र के संपंन किसान हुआ करते थे, जिन पर उनके कुलदेव श्री हाथीवान महाराज की अनन्य कृपा सदैव ही पीढी दर पीढी रही है। परिस्थितिजन्य कारणों से चंद माह की उम्र के शिशुरूप गुरूशरण को लेकर उनके पिता दतिया जिले के इस छोटे से गगाम पण्डोखर में आकर बस गये। यहां स्थित प्राचीन श्री बालाजी मंदिर के समकक्ष विराजमान बालरूप श्री हनुमंतलाल जी महाराज की प्रतिमा द्वापरयुगीन प्राचीन व दिव्य प्रतिमा है। ऐसी मान्यता है कि पाण्डवों ने अपने अज्ञातवास काल में इस प्रतिमा की स्थापना की थी। घोर जंगल में विराजमान हनुमान जी सरकार के इस मंदिर के कारण कालांतर में यहां ग्राम आबाद हुआ और इसका नाम समयानुसार बनते-बिगडते आज पण्डोखर पड गया। पण्डोखर ग्राम में ही पले बडे एवं हाईस्कूल तक शिक्षा प्राप्त किये बालक गुरूशरण बचपन से ही चतुर, चालक व कुशागग बुदि्घ के थे।

बावजूद इसके इनका पढाई लिखाई में कम और हनुमत भक्ति व परिवार के संस्कार वश पांडित्यकर्म में कहीं ज्यदा मन रमता था। श्री गुरूशरण बचपन से ही ग्रामवासियों के लाडले और रहस्यमयी अबूझ पहेली थे। बचपन से ही इनकी वाणी फलीभूत होती रही है, अर्थात जिससे जो कह देते या जैसा बता देते थे वैसा ही सत्य हो जाता था। इनके बचपन से जुडी अनेक रहस्यमयी व रोमांचकारी घटनायें हैं। किशोरावस्था प्राप्त करते-करते इन्हें खूब धनवान बनने व पैसा कमाने का शौक हुआ तो यह परिवारजनों को बरगला कर अठारह किलोमीटर दूर स्थित भाण्डेर शहर आया करते थे। यहां के एक प्रतिष्ठित डाक्टर के यहां इनका यदा-कदा जाना हुआ तो बालक गुरूशरण ने इनके यहां आने वाले चंद मरीजों को देखना और इन्हें दवा बताना आरंभ कर दिया। बालक गुरूशरण की मनमोहित कर देने वाली मुस्कान या स्वभाव कहें अथवा उनकी बताई दवा का असर p26कहा जाये। डाक्टर के यहां मरीजों की भारी भीड पडने लगी और डाक्टर भी गुरूशरण से प्रभावित हो उनके भरोसे ही अस्पताल छोड स्वयं नदारत रहने लगे। गुरूशरण भी डाक्टर की अनुपस्थिति का लाभ उठा बडे चाव से स्टेथिस्कोप कान में लगाकर पारंगत चिकित्सक की तरह बनावटी जांच कर पर्ची पर कुछ भी दवा के नाम पर लिखकर देने लगे। उस पर दवा बिक्रेता भी चांदी काटने लगा और लिखावट समझे बिना ही कोई भी सामान्य दवा विक्रेता कोई भी ऐसी दवा देते रहे और मरीज को दवा रामबाण साबित होती रही। गुरूशरण उस उम्र में भी दो, तीन, पांच सौ रूपये प्रतिदिन जेब में डालकर शाम तक खुशी-खुशी घर लौट आया करते थे।

गुरूशरण बचपन में कहीं अपनी करिश्माई शक्ति से पैसा बना देते, कभी शिक्षक को कुर्सी से ही चिपका कर उनमें अज्ञात भय व विस्मय पैदा कर देते, कभी बैंक के पैसे रोड पर अपने सहपाठियों के बीच वजीफा के रूप में बांटकर, पुन: यथास्थान लौटा दिया करते। पण्डोखर थाने में घटित गंभीर अपराध के वास्तविक अपराधी की जानकारी लेने में जब पुलिस नाकाम रहती तो वह भी इनका सहारा लेते। इसके साथ ही गुरूशरण महाराज का जीवन अनेक झंझावतों के साथ ही कई दिव्य दैवीय शक्तियों से साक्षात्कार करते हुए सदा ही रहस्रूमयी रहा है। समयानुसार जब किशोरावस्था में घर के बाहर दूर जाना हुआ तो वहां भी अपनी चमत्कारी दैवीय शक्तियों से साक्षात्कार कराने लगे। बारह वर्ष की उम्र में ही हनुमान जी सरकार का नामकरण पण्डोखर सरकार करने वाले श्री गुरूशरण सदा ही महत्वाकांक्षी रहे हैं।

बचपन से ही यश-वैभव और कीर्ति अर्जित करने की इगछा रखने वाले श्री गुरूशरण शर्मा अब अनंत श्री गुरूशरण महाराज के नाम से देश दुनिया में ख्याति अर्जित कर रहे हैं। सागर मध्यप्रदेश में युवावस्था के दौरान किये प्रवास और यहां प्राप्त प्रेम-स्नेह, सम्मान के साथ ही शिष्य सत्संग ने इन्हें इतना प्रभावित किया कि यह कई-कई माह यहां रमे रहते। केवल मात्र अमावस्या के दिन भक्तों की पेशी अर्जी हनुमान जी के समक्ष लगाने पण्डोखर जाया करते और पुन: सागर वापस आकर अपने से कहीं बहुत बडी उम्र के चंद शिष्यों के साथ दु:खी पीडितजनों की विभिन्न समस्याओं का समामाधान किया करते थे। सागर नगर से ही पण्डोखर सरकार के दरबार का स्वरूप निखरा और सार्वजनिक दरबार कार्यक्रमों की श्रंखला जो शुरू हुई तो वह अनवरत जारी है।

श्री गुरूशरण की वाणी फलीभूत होती है और किंचित संदेह नहीं कि वह वास्तव में त्रिकालदर्शी व चतुर्युणी संत हैं। सागर में रहते हुए ही उनका प्रणय संबंध माता-पिता ने उरई के समीप स्थित ग्राम में निश्चित कर दिया। विवाह उपरांत पांच वर्ष तक का कठोर ब्राम्हचर्य व्रत धारण करने की शर्त पर विवाह रचाने वाले श्री गुरूशरण महाराज की दिव्य जीवन संगिनी ने भी उनके इस व्रत को एक अनुष्ठान के रूप में संकल्पबद्घ होकर निष्ठापूर्वक पालन किया जो नवयुवाओं के लिए प्रेरणादायक है।
छब्बीस वर्ष की अल्पायु में ही अपने कुल, गुरू और माता-पिता का नाम अमर कर देने वाले युवागृहस्थ संत ने अपने शिष्यों को भी समाज में गौरव व सम्मान प्रदान किया है, इसे कोई नकारा नहीं सकता है। स्वार्थ एवं कुटिल भावना लेकर आने वाले तथा भौतिक सुखों को प्राप्त करने की लालसा लेकर आने वालों को भी उन्हाेने अपनाने से गुरेज नहीं किया। इतना ही नहीं चरित्र से गिर चुके स्त्री-पुरूषों को भी श्री गुरूशरण महाराज ने अपनाकर उन्हें भाई व बहन जैसा नाम सम्मान देकर योग्य पथ प्रदान किया है। ऐसे कुछेक मामलों में स्वयं की चरित्र हत्या करने वालों को भी अभयदान देकर श्री गुरूशरण महाराज ने अपनी गुरूता का प्रदर्शन कर समाज को चकित कर दिया।

जीवन में जटिल चुनौतियों को सहज व सरल भाव से स्वीकार कर उनका सार्वजनिक व सटीक जवाब देने वाले श्री गुरूशरण महाराज को लोकतंत्र क नामी रहनुमाओं ने झुकाने की कोशिश की, लेकिन सत्य परेशान हो सकता है पराजित नहीं यह भी पूगयवाद ने साबित कर दिखाया। श्री गुरूशरण महाराज के आशीर्वाद व दिव्य मार्गदर्शन का ही परिणाम है कि आज हजारा संतानहीन माताओं की गोद में लाल मचल रहे हैं। हजारों भूत-प्रेतबाधा और असाध्य रोगों से पीडित जन विभिन्न व्याधियों से मुक्ति प्राप्त कर स्वस्थ्य व सुखी जीवन व्यतीत कर रहे हैं।